हे मानव ! ज़िन्दगी है छोटी
फिर आँख क्यों है रोती ?
जन्म से अंत तक कई जगहों में रहते ,
लेकिन कहीं भी मेहमान पल भर के |
माँ का कोख बस नौ महीनों का ढ़ेरा,
फिर लगाना कई गोदी का फेरा,
वह भी जब तक चल न सको,
बढ गए इतने, हाथों में टिक न सको |
बचपन का वस्त्र भी रूठ जाता,
जब शरीर उसे न अब भाता |
प्यारी है खेल क्षेत्र की कलियाँ,
मुर्जाये, जब ज़िन्दगी बने पहेलियाँ |
माँ का प्यार भी बिछड़ जाए,
पिता का भी न रह पाए |
मेहमान खुशियों के घर का,
जब तक पलटे न सिक्का |
पैरों से धरती जब खिसके
मेहमान हो शर शय्या के |
अरे ! देह के भी मेहमान तुम,
जब तक आत्मा हो जाए गुम |
चिता पर भी न टिके,
उड़ गए, संग आग के |
इस छोटी सी ज़िन्दगी का,
मुनाफा है लाखों का |
फिर क्यों एक दूसरे से लड़ते ?
दौतल के लिए मरते ?
हे मानव! तुम मेहमान पल भर के |
बहुत अच्छी कविता है!
ReplyDeleteमैं तो सोचता था आपको हिन्दी आती भी नही होगी और आप बस कन्नड़ व् अंग्रेजी जानती होंगी.
हिन्दी लिखने से ध्यान आया कि शायद आपको मालूम हो की ब्लॉग को हिन्दी में क्या कहते हैं?! मुझे तो हाल में ही पता चला है और जब पहली बार मालूम हुआ था तो हँस-हँस के मेरा बुरा हाल था. ब्लॉग की हिन्दी में कहते हैं - चिटठा ! कितना प्यारा शब्द निकाला हिंदीभाषियों ने !:D
धन्यवाद! बस कुछ कोशिश कर लेतें हैं | यह कविता हमनें ग्यारहवीं या बारहवीं कक्षा में लिखी थी |
ReplyDeleteकेंद्रीय विद्यालय में पढनें के कारण सिविल्स परीक्षा में हमारा compulsory language paper हिन्दी है |
चिटठा बहुत ही प्यारा नाम है |